मंगलवार, 29 जुलाई 2008

तेरा नाम ही काफी है


गीत उलझ गये हैं दिल की गलियों में
बोल अटक गये हैं होठों पर
कुछ लिखना है
पर अक्षर हैं कि बकाबू हैं
इधर से उधर
और उधर से इधर
उडते फिरते हैं ख्यालों की तरह
कब से कागज ले कर बैठी हूं
जिस पर लिखा है
तेरा नाम
सिर्फ तेरा नाम
चलो जाने दो
होने दो अक्षरों को बेकाबू
तेरा नाम ही काफी है
इससे अच्छा गीत क्या होगा

रविवार, 27 जुलाई 2008

कौन छिपा हुआ है?

मन की झील में
जिस तरह चांद सूरज उतरते हैं
एक आकार भी उतर आता है उस झील में
कई बार सोचा है
देखूं नजरें गढ़ा कर
आकार में
कौन छिपा हुआ है
मगर हर बार वह
कभी चांद बनता है तो कभी सूरज
कई काफिले इधर से गुजरते हैं
और मेरी दीवानगी को ताकते हैं
मैं हूं कि बेबस हूं
क्या बतायूं
आकार में कौन छिपा हुआ है

मनविंदर भिंभर

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

झरने में कैकट्स

रात को वो अकसर चुपचाप आता है
दिल का दरवाजा खटखटाता है
पहले तो सोचती हूं कि न खोलूं कुंडी
फिर सोचती हूं कि आने दूं उसे अंदर
कुंडी खोलती हूं
वो अंदर आ जाता है
हम जंगलों की ओर निकल जाते हैं
वो मुझे बहते झरने दिखाता है
उसमें उगे कैकटस मुझे हैरान करते हैं
कुछ देर बाद
हम दूसरे युग में पहुंच जाते हैं
अचानक मुझे लगता है
मेेरे पैर कई काल चल चुके हैं
मैं कई जन्मों को गले मिल चुकी हूं
झरने का ख्याल आता है
कैकटस जेहन में उभरता है
खुद ही हंसती हूँ

झरने में कैंकटस
दिल के दरवाजे पर फिर कुंडी लग जाती है


मनविंदर भिंभर

रविवार, 20 जुलाई 2008

सावन तो आ गया है


सावन तो आ गया है
लेकिन बस
आंखों में समा गया है
साथ ही छलक उठे वे कई सावन
जो साथ गुजारे थे
जब सीने में सजा था इक ख्वाब
जब टूट के बिखरा था इक ख्चाब
सावन तो आ गया है
लेकिन बस
आंखों में समा गया है

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

सोने विच मड के


सुबह की ताजगी हो, रात की चांदनी हो, सांझ की झुरमुट हो या सूरज का ताप, उन्हें खूबसूरती से अपने लफ्जों में पिरो कर किसी भी रंग में रंगने का हुनर तो बस गुलजार साहब को ही आता है। मुहावरों के नये प्रयोग अपने आप खुलने लगते हैं उनकी कलम से। बात चाहे रस की हो या गंध की, उनके पास जा कर सभी अपना वजूद भूल कर उनके हो जाते हैं और उनकी लेखनी में रचबस जाते है। यादों और सच को वे एक नया रूप दे देते है। उदासी की बात चलती है तो बीहड़ों में उतर जाते हैं, बर्फीली पहािड़यों में रम जाते हैं। रिष्तों की बात हो वे जुलाहे से भी साझा हो जाते हैं। दिल में उठने वाले तूफान, आवेग, सुख, दुख, इच्छाएं, अनुभूतियां सब उनकी लेखनी से चल कर ऐसे आ जाते हैं जैसे कि वे हमारे पास की ही बातें हो। जैसे कि बस हमारा दुख है, हमारा सुख है। क्या क्या कहें जैसे
तुम मिले तो क्यों लगा मुझे
खुद से मुलाकात हो गई
कुछ भी तो कहा नहीं मगर
जिंदगी से बात हो गई
आ न आ साथ बैठेें
जरा दरे तो
हाथ थामें रहें और ुकुछ न कहें
छू के देखो तो आखों की खामोषियों को
कितनी चुपचाप होती हैं सरगोषियां

इन पंक्तियों में दखों तो सही, प्यार की इंतहा , केयर करने की इंतहा
सोने विच मड़़ के मंतर पढ़ा के
लभ के तवीत ल्यावे नी
फड़ फड़ गले च पावे नी
ते नाले पावे जफि्फयां
प्याज कटां या चिठृठी आवे
भर जाण अिक्खयां
पिक्खयां वे पिक्खयां-------------