रविवार, 28 सितंबर 2008

वो कुछ पल

वो कुछ पल
जो मुझे याद आते हैं
उन पलों में कभी मैं थमती
तो
कभी फिर चल देती हूँ

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

जरूरी अहसास

सुना था
प्यार बहुत जरूरी अहसास
सबके लिये
ऐसा जाना था
फिर इक मुलाकात हुई
इक नया अनुभव हुआ
प्यार जरूरी नहीं है
सबके लिये
कुछ को इसे लेना नहीं आता
कुछ को इसे देना नहीं आता
मैने अपने प्यार को
रख दिया मन के संदूक में
पत्थर से दबा कर
बड़ी हिफाजत से
ताकि जब इसकी जरूरत पड़े
ये कहीं खो न जाए

बुधवार, 10 सितंबर 2008

काश ! लौटना भी सिखा देती

तुम मेरे परिंदे हो
तुम्हारा घोंसला मुझे आज भी याद
मैंने तुम्हें उड़ना सिखाया
तुम उड़े
लंबी उड़ान पर
लौटे नहीं
क्योंकि
तुम नहीं सीखे
कैसे लौटते हैं

सोमवार, 1 सितंबर 2008

बड़ा दर्द सहा है तुमने

ऊफ !
ये कांटा
तुम्हारे पैर में कैसे चुभा ?
कितनी तीखी है इसकी नोक
हाय !
बड़ा दर्द सहा है तुमने
इसकी टीस जल्दी नहीं जाएगी
इक बात बताओ
तुम काँटों की राह पर चलने को मजबूर थे
या
किसी ने तुम्हारी राह में किसी ने कांटें बिखेर दिए

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

दो किनारों से पहले


देह एक केनवस की तरह होती है
फिर तुम मिले
केनवस पर रंग उभरने लगे
रंगों में सांस आने लगी
लकीरों में आकार उभरने लगे
आकार अपनी धुन में थे
कुछ कह रहे थे
रंगों ने सुना
उन पर निखार आ गया
बहार सी बरसने लगी
फिर देखते देखते केनवस पर समंदर फैल गया
तभी एक नूर सा उभरा समंदर में
उसने हाथ उठा कर दिया आशीर्वाद
कुछ देर के बाद नूर अलोप हो गया
समंदर भी अलोप हो गया
देह और रंग भी गायब थे
कैनवस पर रहे गये
दो किनारे
जिनके बीच बह रही थी निर्मल धारा

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

मन को एक कागज पर उतारना

मन को एक कागज पर उतारना
जैसे झील में नहा लेना
और फिर से तरोताजा हो जाना
मन की सारी बातें उसमें रल जाना
फिर उसे रोज रोज देखना
और उसमें से अपने को खोजना
यह सिलसिला चलता रहता है
ऐसे ही
एक दिन झील को बुदबुदाते सुना
´चलते चलते थक गई हूं
देखने गयी थी उस पौधे को
जिसका कद तो ज्यादा नहीं था
टहनियां भी कम थी
कोई फूल भी नहीं था
जैसे किसी ने उसे सींचा ही न हो
फिर देखा उसकी जड़ों को
देख के दंग रह गई
जड़ें थी कि जमीन के सीने पर लिपटी हुई थी
दूर तक फैली हुई थी
बिलकुल ताजा और तंदरूस्त
बरसों से जी रही थी एक कहानी को`
झील का बुदबुदाना सुन मैं हंस दी
सोचा तुम भी देखते
जमीन के सीने पर लिपटी जड़ें
जो दूर तक फैल चुकी हैं
तंदरूस्त हैं ताजा हैं
पर जमीन में दबी हैं--
Manvinder Bhimber

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

सुनती हो जी

मां व्यस्त रहती थीं सुबह से
घर के कामों को निपटाने में
हमारी किताबें लगाने में
बाबू जी की आफिस की तैयारी में
उनकी बिखरी चीजों को समेटने में
उनकी कमीज में बटन टांकने में
सांझ को जब बाबू जी आते
और हम घर सिर पर उठाते
तो बाबू जी कहते,
सुन रही हो
आयो तुम भी बैठो कुछ देर को
आती हूं जीकुछ चाहिए है आपको
पूछ कर मां लौट आती
इतना कह कर मां लग जाती अगले काम में
आज मां नहीं है हमारे बीच
बाबू जी हैं
अब कोई उनके बटन नहीं टाकता है
बाबू जी अकसर आपने टूटे बटन को छू कर
एक आह सी भरते हैं
और मन में बुदबुदाते हैं
सुनती हो जी
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देखो....देखो

देखो
अब तुम ये मत कहना
मैं चांद को न देखूं
बरसती चांदनी को निहारना छोड़ दूं
मुझे मत रोको
करने दो मुझे भी मन की
आज का चांद मैं देखूंगी
पूर्णमासी का चांद
बरसती चांदनी मैं निहारूंगी
तुमको गर ये सुहाता है
तो आओ मेरे संग बैठो
लेकिन मुझे मत रोको
करने दो मुझे भी मन की
मुझे मत रोको

स्वयं को खोजने का हक नहीं है मुझे?

पैदा हुई तो बेटी हो गई
बड़ी हुई तो बहन हो गई
ब्हायी गई तो पत्नी हो गई
घर की लक्ष्मी हो गई
फिर सौभाग्यवती हो गई
क्यों कि मैंने ओढ़ ली जिम्मेवारियों की चुनरी
इन सब में मैं कहां थी?
इसका जवाब खोजना चाहा तो
न बेटी-बहन रही न पत्नी रही
न सौभाग्यवती रही
न घर की लक्ष्मी रही
स्वयं को खोजने का हक नहीं है मुझे?

मेरे लिये जरूरी नहीं है

मेरे लिये जरूरी नहीं है
तुम्हारे सुर में सुर मिलायूं
तुम्हारी हां को स्वीकारूं
तुम्हारे तय किये निर्णय मानूं
तुम्हारे कंधे का सहारा लूं
तुम्हारी राह तकूं
क्योंकिअपने अंदर की स्वयंसिद्धा मैं पहचान गई हूं
तुम्हें भी जान गई हूं
मौका पड़े तो भरी सभा मेंदेख सकते हो मेरा चीर हरण
इक जरा सी बात परदे सकते हो जगलों की भटकन

मल्लाह आज आहत है

मल्लाह आज आहत है
फिर से कुछ पाने की चाहत है
उसकी वजह है नदी, तूफानी नदी
नदी जो सालों से चुप चाप सी बह रही थी
नदी जो सालों से बोझ को सह रही थी
उसमें उठ आये हैं तूफान
इसी लिये
मल्लाह आज आहत है
फिर से कुछ पाने की चाहत है
उसे चुप चाप बहती नदी में नाव खेने की आदत रही
उसे अपनी मस्ती में लहरों को रोंदने की आदत रही
पर आज नाव डोल रही है क्योंकि
नदी ने चुप्पी तोड़ दी है
उसमें उठ आये हैं तूफान
मल्लाह को समझ नहीं आ रहा है ,क्या जुगत लगाए
तूफानी लहरों पर कैसे काबू पाए
मल्लाह आज आहत है
फिर से कुछ पाने की चाहत है

ओ हरजायी बादल

ओ हरजायी बादल

तुम्हें देख रही हूं सालों se

तुम्हें जान रही हूं सालों से

झुक के गुजरते हो तो लगते हो अल्हड़ से

मंडरा के निकल जाते हो तो लगते हो आवारा से

छू कर मन को चले जाते हो तो लगते हो अपने से

घिर कर बरस जाते हो तो लगते हो लगते हो इंद्र से

अब तुम्हें क्या मानूं

किस रूप को जानूं

तुम्हीं बताओ

तुम्हें देख रही सालों से

तुम्हें जान रही हूं सालों से

ओ हरजायी बादल

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

बेजुबान दास्तां

मुद्दत बाद तुम आये
तकिये का गिलाफ तुम्हें बहुत पसंद आया
उस पर उकेरे गये फूल पत्ते तुम्हें भाये
तकिये की बेजुबान दास्तं लेकिन तुम्हें न दिखी
मन में आया
तुम्हें बतायूं
यह तकिया गवाह है
उन पलों का
जब दिल में उठा तूफान
और तकिये में समा गया
सालों यह सिलसिला चलता रहा
और तकिया अपने में समेटता गया मेरे पल
वो कुछ पल
जो मुझे याद आते
जब उन पलों में कभी मैं थमती
कभी फिर चल देती
पता नहीं फूल पत्तों वाला गिलाफ इसकी
किसमत है या रब की मजी
मैं चाहती हूं ये गिलाफ इस पर रहे
ताकि इसकी नमी
इसी में दफन रहे

सोमवार, 11 अगस्त 2008

प्यार ! ये कहीं खो न जाएं



सुना था
प्यार बहुत जरूरी अहसास है
सबके लिये
ऐसा जाना भी
फिर इक मुलाकात हुई
इक नया अनुभव हुआ
प्यार जरूरी नहीं है
सबके लिये
कुछ को इसे लेना नहीं आता
कुछ को इसे देना नहीं आता
मैने अपने प्यार को
रख दिया मन के संदूक में
पत्थर से दबा कर
बड़ी हिफाजत से
ताकि जब इसकी जरूरत पड़े
ये कहीं खो न जाए

शनिवार, 9 अगस्त 2008

मेरा क्या कसूर

क्यों फैंका गया मुझे नहर में
औरत मर्द के देह सुख से उपजी हूं मैं
उस औरत मर्द के लिये मैं कुछ भी नहीं थी
इसी लिये उन्होंने मुझे फैंक दिया नहर में
फैंके जाने के बाद फंसी झािड़यों में
और आ गई किसी नजर में
फैंके जाने का दर्द है बहुत बड़ा दर्द
मेरे जिस्म पर भी और मन पर भी
लोग कह रहे हैं
अब मेरी दुनिया बदल रही है
हो सकता है सही कह रहे हों
कल पता नहीं क्या हो,
यह दर्द कम हो जाये या जानलेवा हो जाए
मुझे नाम मिल गया है
करूणा
हरियाणा की करूणा
कोई गोद भी मिल जायेगी
फिर भी मैं सोचूंगी
आखिर मुझे क्यों फैंका गया नहर में
क्या मैं बेटी थी इस लिये
वो बेटी जो भाई के लंबी उमर के लिये दुआ करती है
वो बेटी घर आंगन का करती है ख्याल
अपनी आखिरी सांस तक

मनविंदर भिम्बर

एक कहानी एक खुशबु

आज फिर मौसम भीगा भीगा सा है
आज फिर उस महक ने मुझे इक पल को
रोक दिया उसी राह पर
वो महक,
हल्की बरसात के बाद हरियाली और मिटृटी
की सौंधी महक
आज फिर में उस रास्ते से गुजरी
जहां से तुम आगे निकल गये थे
मैं वहीं रह गयी थी अकेली सी
तुम्हारे आगे निकलने और मेरे अकेले रहने
के बीच बहुत कुछ बदला
लेकिन नहीं बदली तो महक
हरियाली और मिट्टी की सौंधी महक
ये ´सौंधी महक का अहसास` एक कहानी का हिस्सा हैं लेकिन वह कहानी अभी अधूरी है------ इस अधूरेपन में भी कहानी साफ हैं। अधूरेपन का अलग प्रकार का सुख।
मनविंदर भिम्बर

मंगलवार, 5 अगस्त 2008

अक्षरों का काफिला

ये रोज का किस्सा है
रात के अंधेरे में
जब सोता है जग
तब मैं
चलने लगती हूं अक्षरों के काफिले के साथ
देखती हूं
अक्षर मेरी सोच से भी आगे हैं
कभी कलम को छूते हैं
कभी कागज पर बैठते हैं
कभी गीत बनते हैं
कभी नज्म बनते हैं
और कभी अफसाना भी
बड़े नटखट हैं
चांद को छूते हैं
तारों से बातें करते हैं
पहाड़ी के मंदिर पर चढ़ जाते हैं
मंदिर की घंटियां बजाते हैं
दुआ लाते हैं
और आज
कर दी अनोखी हरकत
सूरज को ले आये
रख दिया काजग पर
मैं भी हैरान हुई
ये क्या हुआ
बहुत सेक था सूरज में
आखें खुली
सूरज का सेक तब भी था
दिल पर
मनविंदर भिम्बर

रविवार, 3 अगस्त 2008

दोस्ती का सिर्फ़ एक दिन

आज संडे हैं, मेरा आफ रहता है लेकिन अभी अभी मुझे आफिस से फोन आया, फ्रेंडषिप डे पर कुछ आइटम लिखना है, मैडम कुछ आइडिया दे दो , मैंने कुछ टिप्स दे दिये लेकिन बाद में सोचा कि जितना हल्ला इस पर माकेZट में हो रहा है, उससे भी ज्यादा हल्ला अखबारों में भी हो रहा है। अभी इस बार के फीचर पेज पर भी दो स्टोरी दोस्ती पर ही आधारित थी। मैंने भी एक आइटम दिया। दो दिन पूर्व ही भोलेनाथ का जलाभिशेक पर्व था, मेरे मोबाइल पर एक ही मैसेज आया लेकिन आज सुबह से मैं मैसेज इरेज करके थक गई हूं। लोगों में दोस्ती, वेलेनटाइन डे, और ऐसे ही दिवसों पर बेहतर उर्जा देखने को मिलती है। अफसोस तो यह है कि यह नई पीढ़ी का खेल है। समझ नहीं आता, ऐसे कौन कौन से दिन अब देखने को मिलेंगे।

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

खुली आंखों का ख्वाब

एक ख्वाब अकसर देखती हूं
तुम मेरे सामने बैठे हो
वही कमीज पहने हो
जो मैेंने तुम्हारे पिछले जन्मदिन पर दी थी
तुम कहते हो, थक गया हूं
आराम चाहिए
मैं खाने के लिये पूछती हूं
तुम हां में जवाब देते हो
तुम्हें खाना खाते निहार रही हूं
खाते समय तुम्हारे माथे पे अभर आयी हैं कुछ बूंदे
अपने आंचन से मैं पोंछती हूं वो बूंदें
तुम आंखों से बोल रहे हो
होठों से देख रहे हो
तभी रूठने का मन होता है
ताकि तुम मनाओ मुझको
लेकिन खुली आंख्ों बंद कर लेती हूं
कहीं येे ख्वाब टूट न जाए

मनविंदर भिम्बर


मंगलवार, 29 जुलाई 2008

तेरा नाम ही काफी है


गीत उलझ गये हैं दिल की गलियों में
बोल अटक गये हैं होठों पर
कुछ लिखना है
पर अक्षर हैं कि बकाबू हैं
इधर से उधर
और उधर से इधर
उडते फिरते हैं ख्यालों की तरह
कब से कागज ले कर बैठी हूं
जिस पर लिखा है
तेरा नाम
सिर्फ तेरा नाम
चलो जाने दो
होने दो अक्षरों को बेकाबू
तेरा नाम ही काफी है
इससे अच्छा गीत क्या होगा

रविवार, 27 जुलाई 2008

कौन छिपा हुआ है?

मन की झील में
जिस तरह चांद सूरज उतरते हैं
एक आकार भी उतर आता है उस झील में
कई बार सोचा है
देखूं नजरें गढ़ा कर
आकार में
कौन छिपा हुआ है
मगर हर बार वह
कभी चांद बनता है तो कभी सूरज
कई काफिले इधर से गुजरते हैं
और मेरी दीवानगी को ताकते हैं
मैं हूं कि बेबस हूं
क्या बतायूं
आकार में कौन छिपा हुआ है

मनविंदर भिंभर

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

झरने में कैकट्स

रात को वो अकसर चुपचाप आता है
दिल का दरवाजा खटखटाता है
पहले तो सोचती हूं कि न खोलूं कुंडी
फिर सोचती हूं कि आने दूं उसे अंदर
कुंडी खोलती हूं
वो अंदर आ जाता है
हम जंगलों की ओर निकल जाते हैं
वो मुझे बहते झरने दिखाता है
उसमें उगे कैकटस मुझे हैरान करते हैं
कुछ देर बाद
हम दूसरे युग में पहुंच जाते हैं
अचानक मुझे लगता है
मेेरे पैर कई काल चल चुके हैं
मैं कई जन्मों को गले मिल चुकी हूं
झरने का ख्याल आता है
कैकटस जेहन में उभरता है
खुद ही हंसती हूँ

झरने में कैंकटस
दिल के दरवाजे पर फिर कुंडी लग जाती है


मनविंदर भिंभर

रविवार, 20 जुलाई 2008

सावन तो आ गया है


सावन तो आ गया है
लेकिन बस
आंखों में समा गया है
साथ ही छलक उठे वे कई सावन
जो साथ गुजारे थे
जब सीने में सजा था इक ख्वाब
जब टूट के बिखरा था इक ख्चाब
सावन तो आ गया है
लेकिन बस
आंखों में समा गया है

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

सोने विच मड के


सुबह की ताजगी हो, रात की चांदनी हो, सांझ की झुरमुट हो या सूरज का ताप, उन्हें खूबसूरती से अपने लफ्जों में पिरो कर किसी भी रंग में रंगने का हुनर तो बस गुलजार साहब को ही आता है। मुहावरों के नये प्रयोग अपने आप खुलने लगते हैं उनकी कलम से। बात चाहे रस की हो या गंध की, उनके पास जा कर सभी अपना वजूद भूल कर उनके हो जाते हैं और उनकी लेखनी में रचबस जाते है। यादों और सच को वे एक नया रूप दे देते है। उदासी की बात चलती है तो बीहड़ों में उतर जाते हैं, बर्फीली पहािड़यों में रम जाते हैं। रिष्तों की बात हो वे जुलाहे से भी साझा हो जाते हैं। दिल में उठने वाले तूफान, आवेग, सुख, दुख, इच्छाएं, अनुभूतियां सब उनकी लेखनी से चल कर ऐसे आ जाते हैं जैसे कि वे हमारे पास की ही बातें हो। जैसे कि बस हमारा दुख है, हमारा सुख है। क्या क्या कहें जैसे
तुम मिले तो क्यों लगा मुझे
खुद से मुलाकात हो गई
कुछ भी तो कहा नहीं मगर
जिंदगी से बात हो गई
आ न आ साथ बैठेें
जरा दरे तो
हाथ थामें रहें और ुकुछ न कहें
छू के देखो तो आखों की खामोषियों को
कितनी चुपचाप होती हैं सरगोषियां

इन पंक्तियों में दखों तो सही, प्यार की इंतहा , केयर करने की इंतहा
सोने विच मड़़ के मंतर पढ़ा के
लभ के तवीत ल्यावे नी
फड़ फड़ गले च पावे नी
ते नाले पावे जफि्फयां
प्याज कटां या चिठृठी आवे
भर जाण अिक्खयां
पिक्खयां वे पिक्खयां-------------

शनिवार, 28 जून 2008

एक सच से वास्ता

मुझे लग रहा है कि रिपोर्टिंग और घर के कामों के बाद जो समय मैं ब्लागिंग में लगाती रही हूं, ये अब आपको मेल करने में लगेगा। यानि के आप केसे आ कर मेल चैक किया तो आपकी मेल मिली। पढ़ कर अच्छा लगा। मन में जल्दी हो रही है, और बातें आप से करने के लिये। मैं आपको फिर अमृता और इमरोज के पास लाना चाहती हूं। मैं भी बचपन से ही अमृता को पढ़ती आ रही हूं। उनकी रसीदी टिकट की बातें मैंने अपनी जिंदगी से कई बार सांझी की हैं। मसलन, आगे बढ़ने वाली महिलाओ की दिक्कतें, उनकी राह के रोड़े, उनकी ओर देखने वाली नजरें, और तो और अपने कलीग और संग काम करने वालों की पित्नयों की नजरें, क्या क्या कहूं? लगता है जैसे उन्होंने जो भी सहन किया बस कागज पर उतार दिया , चाहे वो बंटवारे के समय महिलाअों पर होने वाले अपमान की बात हो जिसे उन्होंने ने ´अज कबरों विचों बोल ` में कहा, या कविायों के मंच पर में अपने सहयोगियों की बीवियों की फिब्तयां हों। वे सदा ही सच के साथ रही ,सच कहती रहीं। ये काफी कठिन तो है ही साथ ही कुछ मायनों में ´अपनों` के लिये बुरा भी। इसको आगे चर्चा में लायेंगे। फिर भी वह सच्ची लेखिका थी, उन पर पंजाब को ही नहीं समाज के उन लोगों को मान रहेगा जो सच की कदर कर उसे पचाना जानते हैं। उनकी इतनी जलती और चुबने वाली बातों से ही मेरे मन में उनसे मिलने का ख्याल आया। अपने बारे में सच को भी उन्होंने खूब लिखा। इमरोज के स्कूटर के पीछे बैठ कर उसकी पीठ पर साहिल का नाम उंगलियों से लिखते रहना। उस हाल में इमरोज का प्रेमण्ण्ण्ण्ण्ण्ये भी कठिन ही होगा इमरोज के लिये अरे मैं क्हां पहुंच गई? बाकी की बातें डिनर के बाद आपके मेल के इंतजार में