ये रोज का किस्सा है
रात के अंधेरे में
जब सोता है जग
तब मैं
चलने लगती हूं अक्षरों के काफिले के साथ
देखती हूं
अक्षर मेरी सोच से भी आगे हैं
कभी कलम को छूते हैं
कभी कागज पर बैठते हैं
कभी गीत बनते हैं
कभी नज्म बनते हैं
और कभी अफसाना भी
बड़े नटखट हैं
चांद को छूते हैं
तारों से बातें करते हैं
पहाड़ी के मंदिर पर चढ़ जाते हैं
मंदिर की घंटियां बजाते हैं
दुआ लाते हैं
और आज
कर दी अनोखी हरकत
सूरज को ले आये
रख दिया काजग पर
मैं भी हैरान हुई
ये क्या हुआ
बहुत सेक था सूरज में
आखें खुली
सूरज का सेक तब भी था
दिल पर
रात के अंधेरे में
जब सोता है जग
तब मैं
चलने लगती हूं अक्षरों के काफिले के साथ
देखती हूं
अक्षर मेरी सोच से भी आगे हैं
कभी कलम को छूते हैं
कभी कागज पर बैठते हैं
कभी गीत बनते हैं
कभी नज्म बनते हैं
और कभी अफसाना भी
बड़े नटखट हैं
चांद को छूते हैं
तारों से बातें करते हैं
पहाड़ी के मंदिर पर चढ़ जाते हैं
मंदिर की घंटियां बजाते हैं
दुआ लाते हैं
और आज
कर दी अनोखी हरकत
सूरज को ले आये
रख दिया काजग पर
मैं भी हैरान हुई
ये क्या हुआ
बहुत सेक था सूरज में
आखें खुली
सूरज का सेक तब भी था
दिल पर
मनविंदर भिम्बर
11 टिप्पणियां:
बहुत खूब
wah manvinder ji,kamaal ka likhti hain aap.......kitni sach baat kitne sunder tareeke se likhi hai...dil khush ho gaya.....bahut bahut badhai....aage bhi aisi ummeed rakhti hoon...thanx...
सूरज को ले आये
रख दिया काजग पर
मैं भी हैरान हुई
ये क्या हुआ
बहुत सेक था सूरज में
आखें खुली
सूरज का सेक तब भी था
दिल पर
बहुत ही सुंदर लिखा है आपने ..दिल को छु गया यह
exellent expression!
बहुत प्यारे नटखट अक्षर .... हमारे भी दिल मे उतर गए... भावभीनी रचना
अक्षर मेरी सोच से भी आगे हैं
कभी कलम को छूते हैं
कभी कागज पर बैठते हैं
कभी गीत बनते हैं
कभी नज्म बनते हैं
............. gr8 manvinder ji
बहोत खूब......अक्षर दिल की भावनाओ में डूबकर निकलते हे तब ही अनोखा खेल रचाते हे कागज पर.....sach a gr8 write manvinder ji.....
बहुत खूबबहुत ही सुंदर लिखा है आपने ..दिल को छु गया यह
apke uper sawan ka asar hai
ek bar akele barish me bheeg ker dekhiye koi aur sunder rachana likhengi. meri shubhkamana apke sath hai
-roshan premyogi
आज चिट्ठा चर्चा के ज़रिये आप तक पहुँचा । कविता अच्छी लगी । प्रत्यक्षा ( http://pratyaksha.blogspot.com/ ) के ब्लौग पर लिखी कुछ पंक्तियां याद आ गई :
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कई बार कल्पनायें पँख पसारती हैं.....शब्द जो टँगे हैं हवाओं में, आ जाते हैं गिरफ्त में....कोई आकार, कोई रंग ले लेते हैं खुद बखुद.... और ..कोई रेशमी सपना फिसल जाता है आँखों के भीतर....अचानक , ऐसे ही
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लिखते रहिये ..
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