शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

खुली आंखों का ख्वाब

एक ख्वाब अकसर देखती हूं
तुम मेरे सामने बैठे हो
वही कमीज पहने हो
जो मैेंने तुम्हारे पिछले जन्मदिन पर दी थी
तुम कहते हो, थक गया हूं
आराम चाहिए
मैं खाने के लिये पूछती हूं
तुम हां में जवाब देते हो
तुम्हें खाना खाते निहार रही हूं
खाते समय तुम्हारे माथे पे अभर आयी हैं कुछ बूंदे
अपने आंचन से मैं पोंछती हूं वो बूंदें
तुम आंखों से बोल रहे हो
होठों से देख रहे हो
तभी रूठने का मन होता है
ताकि तुम मनाओ मुझको
लेकिन खुली आंख्ों बंद कर लेती हूं
कहीं येे ख्वाब टूट न जाए

मनविंदर भिम्बर


4 टिप्‍पणियां:

सचिन श्रीवास्तव ने कहा…

तभी रूठने का मन होता है
ताकि तुम मनाओ मुझको

अद्भुत... ये मनाने वाला कोई हो तो रूठने में कितना मजा है... है न

Anita kumar ने कहा…

अजी रूठिए रुठिए वो जरूर मनायेगें गाते हुए
तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूँ
इन अदाओं पे और प्यार आता है

रंजू भाटिया ने कहा…

रूठना मानना प्यार के दो सुंदर रूप हैं ...सुंदर कविता लिखी है आपने

सरस्वती प्रसाद ने कहा…

बहुत सहज चित्रण,सुन्दर .......